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कहानी: कर्म का धागा और सब्र का चरखा
सूत्रधार: “आओ, मेरे पास बैठो। आज मैं तुम्हें उस दौर की कहानी सुनाता हूँ जब समय की रफ्तार धीमी थी और इंसान के हाथों में जादू हुआ करता था। यह कहानी है चंदनपुर गाँव की, जहाँ की मिट्टी में पसीने की महक और हवाओं में संघर्ष की गूंज थी। यह कहानी है रामदीन की, और उसके उस साथी की, जो न तो बोल सकता था और न ही चल सकता था, फिर भी उसने रामदीन की तकदीर बदल दी। वह साथी था—उसका पुराना चरखा।”
भाग १: सूखा और सन्नाटा
चंदनपुर गाँव में उस साल सूरज ने जैसे आग बरसाने की कसम खा ली थी। आसमान ऐसा साफ था जैसे किसी ने नीला रंग पोत दिया हो, पर बादलों का एक कतरा भी नदारद था। खेत, जो कभी हरे-सोने की तरह लहलहाते थे, अब फटी हुई एड़ियों की तरह दरक चुके थे।
रामदीन, एक सीधा-सादा और गरीब किसान, अपनी झोपड़ी के बाहर बैठा अपनी सूखी ज़मीन को निहार रहा था। उसकी उम्र लगभग पचास के पार थी, चेहरे पर झुर्रियों का जाल था, और आँखों में एक गहरा खालीपन। उसके पास अब न तो बैल बचे थे और न ही बीज खरीदने के लिए पैसे। गाँव के कई लोग शहर की ओर पलायन कर चुके थे, पर रामदीन अपनी पुश्तैनी ज़मीन छोड़ने को तैयार न था। उसे लगता था कि ज़मीन माँ है, और माँ को बीमारी में अकेला नहीं छोड़ते।
शाम ढल रही थी। घर के भीतर से उसकी पत्नी, सुमित्रा, की खाँसने की आवाज़ आ रही थी। घर में अन्न का एक दाना नहीं था। रामदीन की नज़र कोने में रखे एक पुराने, धूल से सने चरखे पर पड़ी। यह चरखा उसके पिता जी का था, जो कभी बेहतरीन बुनकर हुआ करते थे, लेकिन खेती की मशक्कत में रामदीन ने चरखा चलाना छोड़ दिया था।
भाग २: अतीत की गूंज
उस रात रामदीन को नींद नहीं आई। भूख और चिंता ने उसकी आँखों से नींद चुरा ली थी। वह उठा और उस पुराने चरखे के पास गया। शीशम की लकड़ी का बना वह चरखा काला पड़ चुका था, लेकिन उसका पहिया अभी भी मजबूत था। रामदीन ने अनमने मन से उसे साफ किया। घर के एक कोने में थोड़ी सी रुई बची थी, जो उसने पिछले साल के लिए बचा कर रखी थी।
उसने चरखे का पहिया घुमाया। “घूँ… घूँ… घूँ…”
सन्नाटे में वह आवाज़ किसी मंत्र जैसी गूंजी। रामदीन के हाथ कांपे, लेकिन जैसे ही उसने रुई की पूनी को तकली (Spindle) से जोड़ा, उसके पिता की दी हुई सीख उसे याद आ गई।
“बेटा रामदीन,” उसके पिता कहा करते थे, “जीवन भी इस सूत की तरह है। अगर जल्दबाजी में खींचोगे तो टूट जाएगा, और अगर ढीला छोड़ दोगे तो उलझ जाएगा। संतुलन ही जीवन है, और संतुलन ही चरखा है।”
उस रात, रामदीन ने सूत काटना शुरू किया। न पैसे के लिए, न व्यापार के लिए, बस अपने मन के शोर को शांत करने के लिए। जैसे-जैसे चरखा चलता, उसका मन शांत होता गया। उसे लगा जैसे वह सूत नहीं, बल्कि अपनी चिंताओं को एक धागे में पिरो रहा है।
भाग ३: परीक्षा की घड़ी
दिन बीतते गए। सूखा और भीषण हो गया। गाँव के साहूकार, लाला करोड़ीमल, की नज़र रामदीन की ज़मीन पर थी। लाला चाहता था कि रामदीन अपनी ज़मीन कौड़ियों के भाव उसे बेच दे और शहर चला जाए।
एक सुबह, लाला करोड़ीमल रामदीन की झोपड़ी पर आया। “रामदीन! अरे ओ रामदीन!” लाला ने अपनी भारी आवाज़ में पुकारा। रामदीन बाहर आया, हाथ में अभी भी थोड़ी रुई चिपकी थी। “रामदीन, अब हठ छोड़। देख, तेरे बच्चे भूखे मर रहे हैं। यह ज़मीन मुझे दे दे, मैं तुझे शहर जाने का किराया और कुछ पैसे दे दूंगा। यहाँ रहकर क्या चरखा चलाएगा? चरखे से रोटी नहीं निकलती।”
रामदीन ने विनम्रता से हाथ जोड़े, “लाला जी, यह ज़मीन मेरे पुरखों की है। और रही बात चरखे की, तो यह मुझे रोटी दे न दे, पर यह मुझे हिम्मत देता है। जब तक मेरे हाथ चल रहे हैं, मैं भीख नहीं मांगूंगा और न ही अपनी माँ (ज़मीन) को बेचूंगा।”
लाला गुस्से में पैर पटकता हुआ चला गया, “देखता हूँ, यह लकड़ी का खिलौना तुझे कब तक बचाता है!”
भाग ४: अदृश्य तपस्या
अब रामदीन का नियम बन गया था। दिन में वह सूखे खेतों में जाकर व्यर्थ ही सही, पर कुदाल चलाता ताकि धरती को यह न लगे कि उसका बेटा हार मान गया है। और रात को, जब पूरा गाँव निराशा के अंधेरे में होता, रामदीन का दीया जलता और चरखे की “घूँ-घूँ” की आवाज़ गूंजती।
वह रुई खत्म होने पर जंगल से जंगली कपास चुन लाता। वह सूत काटता रहा। भूख उसे सताती, पर वह पानी पीकर चरखा चलाने लगता। धीरे-धीरे, उसके काते हुए सूत में एक अजीब सी बारीकियत आने लगी। उसका ध्यान इतना गहरा हो गया था कि वह धागा इतना महीन हो गया था कि आँखों से मुश्किल से दिखता। वह साधारण सूत नहीं था; वह रामदीन के सब्र, उसकी पीड़ा और उसकी प्रार्थना का भौतिक रूप था।
उसने महीनों तक सूत काटा और उसे जमा करता रहा। सुमित्रा ने उस सूत से एक धोती और एक शॉल बुनना शुरू किया। सुमित्रा की बुनाई में भी वही दर्द और प्रेम था जो रामदीन की कताई में था।
भाग ५: राजा का आगमन
संयोग की बात थी कि उस राज्य के राजा को कला का बहुत शौक था। राजा ने घोषणा करवाई कि जो बुनकर सबसे महीन और मुलायम वस्त्र बनाकर लाएगा, उसे ‘राजकीय बुनकर’ का पद और मुंहमांगा इनाम मिलेगा। दूर-दूर के शहरों से, मशीनों और बड़े कारखानों वाले व्यापारी अपना रेशम और मखमल लेकर राजधानी की ओर दौड़े।
गाँव के लोगों ने रामदीन का मज़ाक उड़ाया। “अरे रामदीन! तेरे इस खुरदरे हाथों से काते हुए सूत को राजा देखेंगे भी नहीं। क्यों अपनी फजीहत करवाने जाता है?”
परंतु रामदीन ने किसी की न सुनी। उसने सुमित्रा द्वारा बुनी गई वह सफेद, सादी शॉल एक पुराने कपड़े में लपेटी और पैदल ही राजधानी की ओर निकल पड़ा। न पैरों में जूते थे, न पेट में पूरा भोजन, बस मन में एक विश्वास था—कर्म का।
भाग ६: राजदरबार का दृश्य
राजदरबार सजा हुआ था। बड़े-बड़े व्यापारी अपने रंग-बिरंगे, जरीदार कपड़े राजा के सामने फैला रहे थे। कोई कपड़ा सोने के तारों से जड़ा था, तो कोई चीन के रेशम से बना था। राजा हर कपड़ा छूते, और सिर हिलाकर मना कर देते। उन्हें वह ‘सुकून’ नहीं मिल रहा था जिसकी उन्हें तलाश थी।
अंत में, रामदीन की बारी आई। वह धूल में सना, फटे कपड़ों में, दरबार के कोने में खड़ा था। दरबान ने उसे रोकने की कोशिश की, “ए भिखारी! यहाँ क्या कर रहा है?” राजा की नज़र उस पर पड़ी। राजा ने इशारा किया, “उसे आने दो।”
रामदीन कांपते हाथों से आगे बढ़ा। उसने पोटली खोली और वह सफेद शॉल निकाली। वह शॉल इतनी हल्की थी कि हवा के झोंके से उड़ने लगी। उसमें न कोई रंग था, न कोई ज़री, न कोई चमक। बस शुद्ध, सफेद कपास।
राजा ने उसे हाथ में लिया। दरबार में सन्नाटा छा गया। वह कपड़ा इतना मुलायम था कि राजा को लगा कि उन्होंने हाथ में बादल का टुकड़ा पकड़ रखा है। राजा ने उसे अपनी आँखों से लगाया। उस कपड़े में रामदीन के पसीने की नहीं, बल्कि उसकी साधना की महक थी।
राजा ने पूछा, “यह किस मशीन से बना है?” रामदीन ने सिर झुकाकर कहा, “महाराज, यह किसी मशीन से नहीं, एक गरीब किसान के सब्र और उसके टूटे हुए चरखे से बना है। इसे बनाते वक्त मैंने ईश्वर के अलावा और किसी की चाह नहीं की।”
भाग ७: परिणाम
राजा की आँखों में आँसू आ गए। उन्होंने कहा, “मशीनें कपड़ा बुन सकती हैं, पर आत्मा नहीं। इस कपड़े में जीवन है।”
राजा ने रामदीन को न केवल मुंहमांगा इनाम दिया, बल्कि उसके गाँव तक नहर खुदवाने का आदेश भी दिया ताकि भविष्य में किसी किसान को सूखा न देखना पड़े। रामदीन जब गाँव लौटा, तो वह बैलगाड़ी में नहीं, बल्कि राजकीय सम्मान के साथ आया।
लाला करोड़ीमल, जो उसकी ज़मीन हड़पना चाहता था, शर्मिंदा होकर रामदीन के पैरों में गिर गया। रामदीन ने उसे उठाया और कहा, “लाला, यह मेरा कमाल नहीं है। यह उस चरखे का सबक है—लगातार चलते रहो, चाहे धागा कितना भी बारीक क्यों न हो, एक दिन वह कपड़ा बनकर तन ढकने के काम आएगा ही।”
समापन
रामदीन अमीर हो गया, पर उसने चरखा नहीं छोड़ा। अब वह हर शाम चरखा चलाता, अमीरी के लिए नहीं, बल्कि उस समय को याद रखने के लिए जब इस चरखे ने उसे टूटने से बचाया था।
तो श्रोताओं, यह थी रामदीन की कहानी।
शीर्षक (Title): कर्म का धागा (The Thread of Karma)
सीख (Moral): परिस्थितियाँ चाहे कितनी भी विपरीत क्यों न हों, धैर्य और निरंतर परिश्रम (Consistency) कभी व्यर्थ नहीं जाते। जीवन के कठिन समय में हमारा कर्म ही वह चरखा है, जो हमारी तकदीर का धागा बुनता है।